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Wednesday, August 15, 2012

पता ही नहीं चला


सीने पे आपके सर रखा था कि गिनूंगी धड़कने
कब नींद आ गयी पता ही नहीं चला
संगीत धडकनों का कुछ यूँ जेहन पे छ गया
कब हुई सुबह कब शाम सियाही हुई, पता ही नहीं चला.

आपकी बाँहों के घेरे, धीरे धीरे कुछ कुछ तंग होने लगे
हम कब सिमटते से चले गए, सच कुछ पता नहीं चला
आपके लबों ने मेरे थरथराते जिस्म को कब कब कहाँ कहाँ छुआ
एक सिहरन से दौड़ती रही, कब रुके आप पता ही नहीं चला

कब आपके खानाबदोश हाथों और थिरकती अँगुलियों ने
मुझे बेपर्द किया, मदहोशी में पता ही नहीं चला
कब छा गए मेरे जिस्म पर कायनात बन कर
कब बरस गए बादलों सा मेरी कोख में. पता ही नहीं चला

कुछ अजीब तन बदन में तैरने सा लगा
मन में कोई बादल सावन सा बरसने लगा
लग रहा था आज कुछ तो खास है
इतने में 'जन्मदिन मुबारक' मेरे कानो में गूंजने लगा.

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